HomeGround Reportकरील या कांदा, आदिवासी जंगल से ख़ाली हाथ नहीं लौटता

करील या कांदा, आदिवासी जंगल से ख़ाली हाथ नहीं लौटता

उनसे बात करते हुए हम जंगल में पहुँच गए. जंगल के एक हिस्से में उनकी देवरानी कांदे की तलाश करती हैं. लेकिन वहाँ कांदा नहीं मिलता है.यह जंगल का गाँव की तरफ़ का हिस्सा है. अमील बाई बताती है कि गाँव के आस-पास के जंगल में सूअर कांदे खा जाते हैं. हमने उन्हें कहा कि वो परेशान ना हों. हमारी वजह से वो पहले ही काफ़ी मेहनत कर चुकीं थीं. लेकिन वो उम्मीद नहीं छोड़ रही थीं. उन्होंने कहा कि जंगल से वो ख़ाली हाथ नहीं जाएँगी, हमारे खाने के लिए कुछ ना कुछ वो जंगल से ज़रूर ले कर जाएँगी.

छत्तीसगढ़ के उत्तर बस्तर की तहसील है पखांजुर. यहाँ के बेचाघाट से कोटरी नदी पार कर हमारी टीम पहले कंदाड़ी और फिर आमाटोला गाँव पहुँची. हमने पहली रात कंदाड़ी गाँव में बिताई और उसके अगले तीन दिन आमाटोला में एक परिवार के साथ रहे.

इन तीन-चार दिन में यहाँ के आदिवासियों की ज़िंदगी के कई पहलू देखने समझने को मिले. काफ़ी हद तक हम भी यहाँ पर आदिवासी दिनचर्या का ही पालन कर रहे थे.

इस सिलसिले में हमने एक पूरा दिन अमील बाई और अन्तनी बाई के साथ बिताया. अमील बाई बड़ी हैं और अन्तनी बाई उनकी देवरानी हैं. दोनों ही गोंडी के अलावा छत्तीसगढ़ी और हिन्दी भी बोल लेती हैं.

गोंडी और छत्तीसगढ़ी लहजे में जब वो हिन्दी में बात करती हैं तो उनकी बातें बड़ी मीठी लगती हैं. पहले दिन दोनों हमसे बात करने में झिझक रहीं थीं. लेकिन शाम होते होते वो हमारे साथ बात करने में बहुत सहज हो गईं.

उसके बाद तो ऐसा हुआ कि अपने परिवार, गाँव और समुदाय के बारे में वो मर्दों से आगे बढ़कर जानकारी दे रही थीं. मैंने यह भी महसूस किया कि ये औरतें अपने परिवार के मर्दों की तुलना में अपने समुदाय और परिवार के भविष्य और मसलों के बारे में ज़्यादा संजीदा हैं.

अमील बाई और अन्तनी बाई ने अगले दिन सुबह हमें कहा कि दोपहर को वो हमें कांदा बना कर खिलाएँगीं. उन्होंने बताया कि वो कांदा लाने के लिए जंगल निकल रही हैं. मैंने उनसे पूछा कि क्या हम भी उनके साथ जंगल जा सकते हैं.

अमील बाई और अन्तनी बाई

उन्होंने हंसते हुए हाँ कर दी थी. शायद उनके मन में थोड़ा संदेह था कि हम सचमुच जंगल जाना चाहते हैं या फिर कहने को कह दिया था. हमारे हाँ कहते ही उन्होंने कहा कि फिर तुरंत ही निकलना पड़ेगा.

मेरे कैमरामैन साथियों ने अपने कैमरे उठा लिए और मैंने अमील बाई को माइक लगा दिया. क्योंकि हम चाहते थे कि जंगल जाते हुए और जंगल में कांदा ढूँढते हुए होने वाली बातचीत भी रिकॉर्ड होती रहे.

रास्ते में अमील बाई से ढेर सारी बातें हुईं. उन्होंने बताया कि जंगल अब उतना घना नहीं है, बीच बीच में खेत हैं. जब वो छोटी थीं तो बेहद घना जंगल था और कम से कम दर्जन भर तरह के फल जंगल से मिलते थे.

आंवला, इमली, चिरौंजी, कांदे और करील के अलावा भी कई तरह के फलदार पेड़ों से जंगल भरा हुआ था. अभी भी जंगल में ये सभी फल मिलते हैं. लेकिन मात्रा कम हो गई है. वो हंसती हुई कहती हैं कि अब इन चीजों की बाज़ार में माँग भी बढ़ी है और दाम भी बढ़े हैं. जब दाम मिलने लगा है तो फल कम हो गया है.

उनसे बात करते हुए हम जंगल में पहुँच गए. जंगल के एक हिस्से में उनकी देवरानी कांदे की तलाश करती हैं. लेकिन वहाँ कांदा नहीं मिलता है.यह जंगल का गाँव की तरफ़ का हिस्सा है. अमील बाई बताती है कि गाँव के आस-पास के जंगल में सूअर कांदे खा जाते हैं.

लेकिन ये जंगल सूअर नहीं हैं बल्कि गाँव के लोगों के पाले हुए सुअर हैं जिन्हें चरने के लिए जंगल में छोड़ दिया जाता है.

करील ले कर लौटती अमील बाई और अन्तनी बाई

जंगल में बकरी चरा रहे एक बुज़ुर्ग ने उन्हें जंगल में एक दूसरी जगह बताई जहां पर उन्होंने कांदे की बेल देखी थी. हम उस तरफ़ बढ़ जाते हैं. वहाँ पर अमील बाई और अन्तनी बाई को कांदे की बेल मिल जाती हैं.

दोनों ही ज़मीन पर बैठ कर कांदे की खुदाई शुरू करती हैं. लेकिन कांदे अभी बहुत छोटे हैं. दोनों दो तीन बेल की जड़ें खोदने के बाद खड़ी हो जाती हैं. वो कहती हैं कि आज कांदा खाने की उम्मीद छोड़ देने चाहिए.

हमने उन्हें कहा कि वो परेशान ना हों. हमारी वजह से वो पहले ही काफ़ी मेहनत कर चुकीं थीं. लेकिन वो उम्मीद नहीं छोड़ रही थीं. उन्होंने कहा कि जंगल से वो ख़ाली हाथ नहीं जाएँगी, हमारे खाने के लिए कुछ ना कुछ वो जंगल से ज़रूर ले कर जाएँगी.

वो कहती हैं या तो भाजी के लिए पत्ते ले जाएँगी या फिर करील. करील शब्द मेरे लिए थोड़ा नया था. मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि करील, बांस को बोला जाता है. इसके बाद वो एक बांस के झुरमुट की तरफ़ बढ़ीं. उस झुरमुट के चार-पांच बाँसों में उपर नुकीले हिस्से की तरफ़ इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि वो देख रहे हैं वही है करील.

इसके बाद उन्होंने अपनी साड़ी को लंगोट के अंदाज़ में टांगा और झुरमुट की तरफ़ बढ़ गईं. मैंने उनसे पूछा कि क्या वो इन बाँसों पर चढ़ेंगी, उन्होंने कहा देखो.

वो फुर्ती से बाँसों पर चढ़ती चली गईं, काफ़ी ऊँचे जा कर बाँसों को ज़ोर ज़ोर से झिंझोड़ना शुरू किया. देखते देखते बांस का ऊपरी नुकीला हिस्सा टूट कर ज़मीन पर गिर गया. उधर अन्तनी बाई भी एक झुरमुट में बाँसों पर चढ़ी हुई थीं.

जब आठ दस करील जमा हो गया था तो दोनों ने अंदाज़ा लगाया कि अब दोपहर के खाने लायक़ करील जमा हो गया है. हम उनके साथ घर के लिए लौट पड़े. जब हम लौट रहे थे तो मैंने उनसे पूछा कि आप लोग जंगल से कभी ख़ाली नहीं लौटते? उनका कहना था, सवाल ही पैदा नहीं होता है..और भी कुछ ना मिले तो सूखी लकड़ी ही ले आते हैं.

यहां के आदिवासी खेती किसानी करते हैं. धान यहाँ की मुख्य फ़सल है लेकिन अपनी ज़रूरत के हिसाब से सब्ज़ियाँ भी उगाते हैं.

इसके अलावा कई परिवारों के पास मुर्ग़े और बकरियों के अलावा भैंसे भी हैं. लेकिन सभी परिवार पशु पालन नहीं करते हैं.

कोटरी नदी के आस-पास के गाँवों के कुछ लोग सुबह सुबह नदी पार मज़दूरी के लिए निकलते हुए भी नज़र आए. लेकिन इनकी तादाद बहुत ज़्यादा नहीं है.

खेती किसानी, मज़दूरी और पशुपालन किसी भी ग्रामीण परिवार को स्थिरता और पोषण दोनों देते हैं. अगर किसी परिवार के पास खेती, पशु और मज़दूरी तीनों है तो यह माना जाता है कि कम से कम इस परिवार को भरण पोषण की समस्या नहीं होगी. लेकिन इन आदिवासियों के लिए जंगल एक ऐसा स्रोत है जो कभी इन्हें भूखा नहीं रहने देता है.

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