HomeMain Bhi Bharatपारसनाथ: आदिवासी और जैन समुदाय के बीच भरोसा क्यों टूटा है?

पारसनाथ: आदिवासी और जैन समुदाय के बीच भरोसा क्यों टूटा है?

पारसनाथ पहाड़ पर जैन समुदाय के कई मंदिर हैं. इस समुदाय के लिए यह एक पवित्र स्थान है जहां पर जैन समुदाय के लोग तीर्थ के लिए आते हैं. वहीं आदिवासी समुदाय इस पहाड़ को मरांग बुरू कहते हैं. उनके लिए भी यह आस्था का बड़ा केंद्र रहा है. झारखंड के गिरडीह में आदिवासी और जैन समुदाय दोनों ही अपनी आस्थाओं का पालन करते रहे हैं. लेकिन हाल ही में यह आपसी भाईचारा और शांति भंग हुए हैं. आख़िर क्यों? हमने ज़मीन पर कारण तलाश करने की कोशिश की है.

झारखंड का पारसनाथ पहाड़। देखने में विशाल, हरियाली से भरा हुआ। जिसे झारखंड का एवरेस्ट भी कहा जाता है. आदिवासियों के लिए मारंग बुरू, जैनियों के लिए सम्मेद शिखर और पर्यटकों के लिए प्राकृतिक सुंदरता से भरा टूरिस्ट स्पॉट. 

जैन धर्म के अनुसार उनके धर्म में कुल मिलाकर 24 तीर्थांकर हुए हैं. जिसमें से 20 तीर्थांकरों की समाधि पारसनाथ में मौजूद है. वहीं आदिवासी समुदाय के लोग पारसनाथ को मारंग बुरू के नाम से जानते हैं. 

जिसका जिक्र बिहार हजारीबाग गैजेट 1941 के 294 पेज में देखने के लिए मिलता है. जिसे आदिवासी संथाल समुदाय का सबसे पवित्र स्थल माना गया है. 

सदियों से झारखंड के गिरिडीह में बसे आदिवासी, जैन और गैर आदिवासी लोग इस जगह को साझा कर रहे हैं. लेकिन पिछले 2 महीनों में ये शांति और भाईचारा कहीं गुम हो गए है और जो पारसनाथ दो समुदायों की आस्था को बांधे हुआ था, वो आज उनके बीच विवाद का कारण बन चुका है.

झारखंड के गिरिडीह जिले में विश्व प्रसिद्ध पारसनाथ रांची से क़रीब 160 किलोमीटर की दूरी पर है. फ़िलहाल पारसनाथ पहाड़ आदिवासी और जैन समुदाय के बीच विवाद का केंद्र बन हुआ है. 

यहां रहने वाले जैन और आदिवासी समुदाय के लोग इस पहाड़ पर अपने अधिकार की मांग कर रहे हैं. जैन समुदाय का कहना है कि इसे पर्यटक स्थल न बनाया जाए और साथ ही यहां आने वाले सभी लोगों को जैन मान्यताओं का सम्मान करना पड़ेगा. 

वहीं पारसनाथ में बसे आदिवासी समुदायों का कहना है कि वो सदियों से मरांग बुरू यानि पारसनाथ में रह रहे हैं और उनके पूर्वज द्वारा बनायी गई अराधना पद्दतियों का पालन कर रहे हैं. 

इस परंपरा में बलि प्रथा भी शामिल है. उनका यह भी कहना है कि मरांग बुरू उन्हीं का है और किसी भी कारण से उनसे छिना नहीं जा सकता है. दोनों ही पक्ष अपनी मांगों पर अड़े हुए हैं जिसकी वजह से पारसनाथ में तनाव का माहौल बढ़ता ही जा रहा है.

ये विवाद शुरू कैसे हुआ?

2019 में झारखंड की रघुवर दास की सरकार ने केंद्र सरकार को एक पत्र भेजा. इस पत्र में उन्होंने अनुरोध किया कि पारसनाथ को eco tourism क्षेत्र घोषित किया जाए. जिसके लिए केंद्र में मौजूद बीजेपी सरकार ने हामी भरी थी. 

2020 में कॉविड ने भारत को अपनी चपेट में लिया और भारत की आर्थिक, स्वास्थ्य और पर्यटन  स्थिति चरमा गयी. कॉविड की इस मार से उभरने के लिए ही 17 फरवरी 2022 में झारखंड सरकार ने एक नोटिस जारी किया और पारसनाथ के साथ झारखंड में मौजूद 6 धार्मिक स्थलों को धार्मिक पर्यटक स्थल घोषित कर दिया. 

ताकि झारखंड में दोबारा से पर्यटन शुरू किया जा सके. सरकार को उम्मीद रही होगी कि पारसनाथ पर पर्यटन को बढ़ावा देने से राज्य को कुछ पैसा मिल सकेगा.  

लेकिन जैन समुदाय को सरकार का यह फ़ैसला एकदम नहीं भाया. जैन समुदाय ने आशंका ज़ाहिर करते हुए कहा कि पर्यटन से उनके तीर्थ स्थल की पवित्रता भंग हो सकती है. 

जैन समुदाय मानता है कि अगर यहाँ पर लोगों की आवाजाही बढ़ती है तो पारसनाथ में रह रहे जीवों और पहाड़ पर असर पड़ेगा.  इस बीच 28 दिसंबर 2022 को पारसनाथ से जुड़ी एक खबर सामने आती है.  

जिसके अनुसार एक जैन जात्री ने पारसनाथ पर आए एक पर्यटक के साथ झगड़ा किया. उन्होंने इस पर्यटक को मांसाहारी बताते हुए आरोप लगाया कि वह जैन तीर्थ स्थल की गरिमा और पवित्रता को भंग कर रहे हैं. इस घटना ने आदिवासी समुदाय में बेचैनी पैदा कर दी.

उधर जैन समुदाय ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए केंद्र सरकार से एक आदेश जारी करवा दिया. इस आदेश के अनुसार पारसनाथ पहाड़ के क्षेत्र में किसी भी पर्यटक गतिविधि पर रोक लगा दी गई. 

इस फ़ैसले के बाद आदिवासी समुदाय की आशंका भरोसे में बदल गई कि जैन समुदाय सिर्फ़ पारसनाथ मंदिर पर अपना स्वामित्व नहीं मानता है. बल्कि यह समुदाय इस पूरे इलाक़े में अपनी शर्तें थोप रहा है. 

इसके बाद आदिवासियों ने यह ऐलान किया कि पारसनाथ आदिवासियों का मारंग बुरू है. यहाँ के आदिवासी समुदाय पीढ़ियों से यहाँ पर अपने देवी देवताओं और पुरखों को पूजते रहे हैं. 

इसके साथ ही आदिवासी परंपरा के अनुसार पुरखों और देवताओं को शराब और मांस दोनों चढ़ाया जाता है. इसके बाद कई आदिवासी संगठनों ने मिल कर 10 जनवरी को पारसनाथ में महाजुटान का आवाहान दिया. 

जिसमें देश के 5 राज्यों में से आदिवासी समुदायों के लोगों  ने भाग लिया और लगभग 10 हजार से ज्यादा आदिवासी समुदाय के लोग इस महाजुटान में शामिल हुए.

जैन समुदाय लगातार ये बात कह रहा है कि पर्यटन के बढ़ने से उनके धार्मिक स्थान को हानि तो पहुंचेगी ही लेकिन पारसनाथ के पर्यावरण पर भी इसका असर पड़ेगा. 

पर्यटन स्थल घोषित करने बाद यहां पर लोगों को आना-जाना बढ़ जाएगा और उनके रहने के लिए उनके रहने के लिए बढ़ी-बढ़ी इमारतों का निर्माण भी होगा और साथ ही ज्यादा गाड़ियों के आने-जाने से पारसनाथ के वन्य जीवों पर इसका असर पड़ेगा. 

पारसनाथ जैन धर्म के लोगों की आस्था का बड़ा केंद्र है. जैन समुदाय का लगभग हर व्यक्ति जीवन में एक बार यहां पर आने की इच्छा रखता है. जैन यात्रियों के लिए यहां पर कई तरह की सुविधाएं तैयार की गई हैं. मसलन यहां पर की धर्मशालाएं और ठहरने के लिए दूसरी सुविधाएं बनाई गई हैं, कई अभी भी बन रही हैं. 

यहां पर कभी ऐसा नहीं सुना गया कि आदिवासियों ने जैन समुदाय के लिए कोई मुश्किल खड़ी की हो. सच्चाई तो ये है कि कानून यहां पर कोई भी ग़ैर आदिवासी ज़मीन ख़रीद ही नहीं सकता है. 

यानि यहां पर जो जैन मंदिर, धर्मशाला बने हैं वे आदिवासियों की जमीन पर बने हैं. यह ज़मीन जैन संस्थाओं को इस शर्त पर मिली है कि वे इस इलाके में उत्थान का काम करेंगी.  

लेकिन यहाँ के आदिवासी गाँवों में शिक्षा, स्वास्थ्य या फिर उत्थान का कोई दूसरा काम किया गया है इसका कोई सबूत तो नहीं मिलता है.  

पारसनाथ में तीर्थ के लिए आने वाले यात्रियों में से कई की हालत ऐसी नहीं होती है कि वे 9 किलोमीटर की यात्रा पैदल पूरी कर सके. इन यात्रियों को यहाँ के आदिवासी अपने कंधों पर यात्रा करवाते हैं. 

ये आदिवासी इन यात्रियों को डोली में बैठा कर 9 किलोमीटर की यात्रा कराते हैं. यह बात सही है कि इन यात्रियों की वजह से यहाँ डोली मज़दूरों को कुछ पैसा मिलता है. 

लेकिन यहाँ की जैन संस्थाओं की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि जैसे यात्रियों की सुविधाओं का ध्यान रखा गाय है इन मज़दूरों के लिए भी कुछ ज़रूरी सुविधाओं का इंतज़ाम किया जाए. 

यहाँ दिसंबर और जनवरी कड़कड़ती ठंड हो, जून-जुलाई की बारिश हो या मार्च का शरीर जलाने वाला गर्म महीना, डोली मज़दूरों को ये सब मधुबन की सड़कों पर ही झेलना पड़ता है. 

यहां तक कि इन डोली मजदूरों को शौचालय जैसी जरूरी सुविधाओं से भी महरूम रखा गया है. उन्हें निराश करने वाले सिर्फ जैन पंथ के लोग ही नहीं बल्कि झारखंड में मौजूद सरकार भी है जो अभी तक उन्हें राहत देने वाले फैसले नहीं ले पायी है.

यहाँ रहने वाले कई लोगों से हमें यह शिकायत सुनने को मिली कि जैन संस्थानों में काम करने वाली गैर आदिवासी लोगों को भी भेदभाव झेलना पड़ा है.

पारसनाथ में जैन समुदाय की आस्था पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता है. वैसे ही यहाँ के पहाड़ और ज़मीन पर आदिवासी के अधिकार को भी चुनौती नहीं दी जा सकती है. 

जैन समुदाय को यह हक़ है कि वह अपनी पूजा पद्धति से अपने ईष्ट देव की आराधना करे, लेकिन एक पूरे क्षेत्र विशेष पर अपनी मान्यताएँ और शर्तें थोपना सही नहीं है. 

जैन समुदाय से यह उम्मीद भी की जाती है कि यहाँ लोक कल्याण के कुछ काम करे. ऐसा करने से स्थानीय लोगों और आदिवासी समुदायों के मन में जैन समुदाय के प्रति पैदा हुई आशंका को दूर किया जा सकता है. 

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