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त्रिपुरा की राजनीति का केन्द्र बिन्दु बना ADC एरिया इतना उपेक्षित क्यों है

त्रिपुरा के चुनाव में आदिवासी बहुल इलाक़ों पर सभी दलो का फ़ोकस है. यहाँ की एक तिहाई यानि 60 में से 20 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं. लेकिन इन इलाक़ों में विकास का क्या हाल है, एक ग्राउंड रिपोर्ट -

त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त जिला परिषद  (TTAADC) मुख्यालय अगरतला से 20 किलोमीटर दूर खुमलुंग में है. पश्चिम त्रिपुरा ज़िले में खुमलुंग जनजातीय क्षेत्र परिषद का सबसे बड़ा शहर है.

भारत के संविधान की अनुसूची 6 के प्रावधान के तहत 1979 में त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त जिला परिषद की स्थापना की गई थी. क्योंकि यहाँ के लोगों को यह शिकायत थी कि जनजातीय इलाक़ों के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विकास को नज़रअंदाज़ किया जाता है.

इसके अलावा संविधान के प्रावधान के अनुसार देश के जनजातीय इलाक़ों के प्रशासन में समुदायों की हिस्सेदारी की माँग भी हो रही थी. इस सिलसिले में जनजातियों के लंबे आंदोलन के बाद जनजातीय क्षेत्र परिषद जिसे आमतौर पर ADC कहा जाता है उसकी स्थापना हुई थी.

त्रिपुरा में 16 फ़रवरी को विधानसभा चुनाव के लिए मतदान होगा. इस चुनाव में त्रिपुरा की जनजातियों की काफ़ी चर्चा हो रही है. इसकी वजह बिलकुल साफ़ है कि यहाँ की 60 सीटों में से 20 सीटें अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित हैं.

इस चुनाव में सीपीआई (एम), कांग्रेस, बीजेपी, IPFT के अलावा टिपरा मोथा भी मैदान में है. इन सभी पार्टियों में IPFT और टिपरा मोथा राज्य की अनुसूचित जनजातियों के संगठन हैं.

ये दोनों ही संगठन यहाँ कि अनुसूचित जनजातियों के लिए अलग ग्रेटर टिपरालैंड राज्य की माँग करते हैं. 2018 के विधानसभा चुनाव में IPFT ने बीजेपी के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा था.

इस चुनाव में भी यह गठबंधन बरकरार है लेकिन आज यह गठबंधन उतना मज़बूत नहीं माना जा रहा है जितना 2018 में था. इसकी वजह ये है कि IPFT की ज़मीन यहाँ के जनजातीय इलाक़ों में खिसक चुकी है.

इसकी शुरुआत हुई 2021 में जब जनजातीय क्षेत्र परिषद यानि ADC के चुनाव में टिपरामोथा ने बड़ी जीत दर्ज कर बीजेपी और IPFT को सत्ता से बाहर कर दिया.

उसके बाद तो IPFT में ऐसा बिखराव शुरू हुआ कि उसके लगभग सभी बड़े नेता और कार्यकर्ता पार्टी छोड़ कर टिपरा मोथा में शामिल हो गए.

इस चुनाव में सत्ताधारी बीजेपी और सीपीआई (एम)-कांग्रेस गठबंधन ने टिपरा मोथा के साथ चुनावी तालमेल बनाने की कोशिश की थी, लेकिन टिपरामोथा ने अकेले ही चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया है.

आज की तारीख़ में यह कहा जा रहा है कि टिपरा मोथा चुनाव के बाद किंग मेकर की भूमिका में आ सकता है. लेकिन टिपरा मोथा के लोग भी यह मानते हैं कि ADC इलाक़े में टिपरामोथा सत्ता में आने के बाद लोगों की उम्मीदों को पूरी नहीं कर सकी है.

यहाँ के जनजातीय क्षेत्रों विकास के काम दिखाई नहीं देते हैं. 

ADC के चेयरमैन जगदीश देबबर्मा कहते हैं, “यह बात सही है कि हम आज यहाँ पर सत्ता में हैं, लेकिन सबसे ज़रूरी होती है आपकी financial power…ADC के पास सिर्फ 619 करोड़ रुपये हैं, इसमें से लगभग 300 करोड़ रूपये तो तनख्वाह में ही चले जाते हैं. 200 करोड़ में जनजातीय इलाकों के विकास का काम असंभव है.”

त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त जिला परिषद मुख्यालय खुमलुंग में शिक्षा की कुछ व्यवस्था नज़र आती है. यहाँ पर कुछ स्कूल हैं जिनमें आधुनिक सुविधाएँ उपलब्ध हैं.

यह माना जाता है कि त्रिपुरा में वामपंथी सरकार के राज में जनजातीय इलाक़े में कम से कम स्कूलों के मामले में अच्छा काम किया गया है. सरकारी आँकड़ों के अनुसार ADC इलाक़े में 1466 प्राइमरी स्कूल हैं.

इसके अलावा 243 हाई स्कूल और 69 हायर सैकेंडरी स्कूल भी हैं. इनमें से दो दर्जन यानि 24 स्कूल इंग्लिश मीडियम में भी पढ़ाते हैं. लेकिन विकास के बाक़ी पैमानों पर ADC एरिया काफ़ी नीचे के पायदान पर है. मसलन इस इलाक़े में सड़कों की भारी कमी है.

इस मसले पर MBB से बातचीत में ADC के उपाध्यक्ष अनिमेष देबबर्मा कहते हैं, “जहां तक सड़कों का सवाल है तो राज्य के पास जितनी सड़के हैं उससे ज़्यादा सड़कें TTADC एरिया के आधीन हैं. क़रीब 1100 किलोमीटर सड़क हमारे क्षेत्र में हैं. पिछले साल सरकार ने इन सड़कों के रख-रखाव के लिए 6 करोड़ रुपया दिया है. अगर हम नई सड़क बनाने की बजाए, सिर्फ़ सड़कों की मरम्मत का काम भी कराएँ तो भी 1000 करोड़ रूपये से ज़्यादा की ज़रूरत है. आप बताएँ कि यह काम हम 6 करोड़ रूपये में कैसे कर सकते हैं.”

खुमलुंग से हमारी टीम ADC के ग्रामीण और पहाड़ी इलाक़ों में लोगों से मिलने के लिए निकली. जैसे जैसे हम शहरी इलाक़े को पीछे छोड़ते हैं, वैसे वैसे पक्की सड़क भी छूटती जाती है और कच्चे रास्ते आ जाते हैं.

एक गाँव के बाहर कुछ औरतें पानी भरती मिल गईं. त्रिपुरा के जनजातीय इलाक़ों में पीने के पानी की कोई व्यवस्था नहीं है, यह कहना कोई ग़लत बात नहीं है.

पहाड़ों रिस कर बारिश पानी कुछ गढ्ढों में जमा हो जाता है, यहाँ से औरतों को इन गड्डों से पानी ढोना पड़ता है. त्रिपुरा के चुनाव में जनजातीय समुदायों की चर्चा है.

लेकिन ये जनजातीय लोग किन हालात में जी रहे हैं….इस बात से समझ लीजिए की पीने का पानी तक इनके गाँवों में नसीब नहीं है. 

यहाँ के एक एक गाँव में हमारी मुलाक़ात एक लड़की निर्मला देबबर्मा से हुई. उनसे बातचीत में उन्होंने कहा, “हमारे गाँव में पीने के पानी की सबसे बड़ी समस्या है. ख़ासतौर से सर्दियों में तो पानी मिलना बेहद मुश्किल हो जाता है. गड्डों में भी पानी नहीं रहता है. जो पानी होता भी है उसमें धूल होती है, पेड़ों से पत्ते झड़ कर उसमें गिर जाते हैं जो सड़ जाते हैं. इससे पानी में बदबू हो जाती है. लेकिन क्या करें यही पानी पीना हमारी मजबूरी है.”

गाँव के ज़्यादातर घर कच्चे ही हैं. बल्कि यह कहना चाहिए कि बांस से ही बने हुए हैं. इसके अलावा पूरे गाँव में कोई पक्की गली या सड़क नज़र नहीं आती है. इस गाँव तक पहुँचने के लिए भी कच्चे रास्ते से ही पहुँचना पड़ता है. इस गाँव के लोग बताते हैं कि यहां से बाज़ार कम से कम 18 किलोमीटर है…और वहाँ तक पहुँचने का पूरा रास्ता कच्चा है. ज़ाहिर है बारिश के दिनों में यहाँ की ज़िंदगी आसान तो नहीं होती होगी. 

इस सिलसिले में एक ग्रामीण समारंजन त्रिपुरा कहते हैं, ” हमारे गाँव के लिए रास्ता नहीं बना है. रास्ता और पानी यहाँ की सबसे बड़ी दो समस्याएँ हैं. रास्ता नहीं होने की वजह से बाज़ार या अस्पताल पहुँचना दोनों ही बेहद मुश्किल काम होता है. क्या करें, किसी तरह से जी रहे हैं और कोई उपाय नहीं है.”

हालाँकि गाँव में घूमते हुए हमने पाया कि गाँव में अब पानी की एक टंकी का निर्माण किया जा रहा है. इस टंकी से गाँव के क़रीब 92 परिवारों के घर पीने का पानी पहुँचाने की योजना है.

उम्मीद है कि यह टंकी समय से बन जाए और पानी भी परिवारों तक पहुँच ही जाए. त्रिपुरा के ज़्यादातर जनजातीय इलाक़ों में गाँव पहाड़ों पर बसे हैं. यहाँ कुछ मैदानी इलाक़ों में अब स्थाई खेती होती है.

लेकिन बड़ी आबादी अभी भी पहाड़ी ढलानों पर जंगल में झूम खेती करती है. ज़ाहिर है इस तरह की खेती में उत्पादन काफ़ी सीमित होता है. इसके अलावा रोज़गार का कोई और साधन यहाँ मौजूद नहीं है. 

त्रिपुरा के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 68 प्रतिशत जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त जिला परिषद के दायरे में आता है. राज्य की कुल आबादी का क़रीब 35 प्रतिशत हिस्सा इस क्षेत्र में रहता है जिसमें क़रीब 3 लाख ग़ैर जनजातीय परिवार भी शामिल हैं.

ADC में सत्तारूढ़ टिपरामोथा का कहना है कि इस लिहाज़ से स्वायत्त परिषद को पैसा भी उसी अनुपात में मिलना चाहिए. लेकिन पिछले 39 साल में इस मामले में कोई संतुलन नहीं बनाया गया है. 

वीओ८. त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त जिला परिषद में चुने गए नेता यह मानते हैं कि उनसे जनजातीय समुदायों के आम लोगों को काफ़ी उम्मीदें हैं. वे समझते हैं कि अब परिषद में टिपरामोथा यानि महाराज प्रद्योत किशोर माणिक्य का राज है.

इसलिए उनका भला होगा. लेकिन हमारी मजबूरी ये है कि विकास के काम के लिए हमारे पास फंड ही नहीं हैं. कई बार तो कर्मचारियों का वेतन देने के लिए भी पैसा नहीं होता है.

परिषद के नेता यह भी मानते हैं कि जनजातीय इलाक़ों में रास्ते और पानी के अलाव सबसे बड़ी समस्या है बेरोज़गारी. 

ADC से जुड़े एक और बड़े नेता पूर्ण चंद जमातिया कहते हैं, ” बेरोज़गारी बहुत बड़ी समस्या है. यहाँ पर ना तो खेती है और ना ही उद्योग है. लोग सरकारी नौकरी की आस में रहते हैं. यहाँ ADC में काफ़ी पद ख़ाली पड़े हैं. लेकिन राज्य सरकार यहाँ के पदों को भरने की अनुमति नहीं दे रही है. हमें यहाँ पर उद्योग को लाना होगा. लेकिन अफ़सोस कि हमारे पास उद्योग के लिए भी कोई पैसा नहीं है.” 

वीओ९. टिपरामोथा के नेता कहते हैं कि केंद्र सरकार के पूल में काफ़ी पैसा है जो स्वायत्त परिषद के विकास के लिए सीधा दिया जा सकता है. लेकिन बीजेपी टिपरा मोथा को अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों की तरह से देखती है. इसलिए केंद्रीय पूल से भी हमें पैसा नहीं मिल रहा है. 

2018 के चुनाव में जनजातीय संगठन IPFT ने सत्ता परिवर्तन में अहम भूमिका निभाई थी. इस बार यानि 2023 के विधानसभा चुनाव में शायद वह भूमिका टिपरा मोथा निभाए.

2018 में IPFT ने ग्रेटर टिपरालैंड की माँग उठाई थी, इस चुनाव में टिपरामोथा उसी माँग को दोहरा रहा है. बीजेपी, सीपीआई (एम) और कांग्रेस, इस माँग पर कोई लिखित आश्वासन टिपरा मोथा को नहीं दे पाया. इसलिए उसने इनमें से किसी दल के साथ गठबंधन भी नहीं किया.

राज्य में चुनाव के बाद अगर किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है, तो फिर यह मुद्दा एक बार फिर इन राष्ट्रीय दलों के मेज़ पर होगा, तब क्या करेंगे.

राजनीति में कोई ना कोई रास्ता तो निकल ही जाता है, सरकार बनाने का भी कोई रास्ता निकाल ही लिया जाएगा. लेकिन ग्रेटर टिपरालैंड की माँग से पीछा छुड़ाने का एक ही तरीक़ा है, ADC एरिया में विकास और उसके लिए पर्याप्त पैसा उपलब्ध करवाना. 

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