HomeGround Reportज़मीन दे कर पानी की क़ीमत चुकाई, फिर भी प्यासे रहे आदिवासी

ज़मीन दे कर पानी की क़ीमत चुकाई, फिर भी प्यासे रहे आदिवासी

औरतों की साक्षरता दर की कमी की एक वजह भी पानी की कमी में आप तलाश सकते हैं. भारत के लगभग सभी समुदायों की तरह ही ज़्यादातर आदिवासी समुदायों में भी घर चलाने की ज़िम्मेदारी औरतों पर ही आती है. लिहाज़ा परिवार के लिए पानी हासिल करना भी उसकी ही ज़िम्मेदारी है. अब पानी कहां से आएगा, उसके लिए औरतों को कितनी दूर चलना पड़ेगा, यह उसकी क़िस्मत पर है. पानी की तलाश और उसे हासिल करने में परिवार की लड़कियाँ बहुत कम उम्र में ही शामिल हो जाती हैं और अक्सर स्कूल और पानी में से परिवार पानी को ही चुनता है.

पालघर के धामण गाँव में एक बुजुर्ग अपने घर का छप्पर बदलने की जुगत में लगे हैं. छप्पर के साथ साथ उन्हें अपने घर की बाड़ भी बदलनी है. इन बुजुर्ग के चेहरे पर किसी तरह के भाव नज़र नहीं आ रहे थे.

ना ही ऐसा लगता है कि उन्हें अपने काम को निपटा लेने की कोई जल्दी है. उन्हें काम करते हुए हम काफ़ी देर तक देखते रहे. फिर ख़ुद से ही सवाल किया कि उन्हें जल्दी हो भी तो किस बात की.

क्योंकि जो लोग मज़दूरी की तलाश में बाहर निकल जाते हैं, उनका तो ठीक है. लेकिन जो आदिवासी गाँवों में रह जाते हैं उनके पास करने के लिए कुछ ख़ास होता नहीं है. इसकी वजह है कि यहाँ खेती पूरी तरह से बारिश के भरोसे है.

सिंचाई का कोई साधन नहीं है, और गर्मियों का हाल तो यह रहता है कि फसल तो छोड़िए मवेशियों के लिए एक तिनका घास तक नज़र नहीं आती है. वैसे सिंचाई की बात करना ही बेमानी लगता है, क्योंकी यहाँ तो पीने के पानी की एक एक बूँद के लिए आदिवासी तरस जाता है.

हम यह समझ सकते हैं कि मौसम का चक्र तो कुदरत के हाथ में है. लेकिन यह मामला तो आदिवासी के ख़िलाफ़ धोखे का नहीं तो कम से कम वादा खिलाफ़ी का ज़रूर है. क्योंकि यहाँ के आदिवासी ने पानी के लिए बहुत बड़ी क़ीमत चुकाई है.

इस ज़िले में तीन बांध हैं और इन तीनों ही बाँधो के लिए आदिवासियों की ज़मीन का अधिग्रहण हुआ था. ज़ाहिर कुछ आदिवासियों को विस्थापित भी होना पड़ा था. पालघर की डहाणू तहसील के गाँवों में घूमते हुए हम लोग पासोड़ी पाड़ा पहुँचे.

इस गाँव की जयंती जीवे हरपाले और उनकी बहु सुबह सुबह एक ज़रूरी मिशन पर निकल पड़ी हैं. बर्तनों के साथ साथ आप उनके हाथ में एक छलनी भी देखी जा सकती थी. ये दोनों क़रीब आधा किलोमीटर दूर चलने के बाद एक गड्डे के पास रूक जाती हैं.

फिर दोनों मिल कर इन गड्डों से पानी भरती हैं. अब हमें समझ में आया कि उनके हाथ में छलनी क्यों थी. क्योंकि गड्डे के पानी में से कम से कम मोटा कबाड़ बाहर किया जा सके. जयंती और इस गाँव की दूसरी औरतों के लिए गर्मियों में परिवार के लिए पीने का पानी जुटाना एक मिशन ही है.

पालघर और ठाणे ज़िले की कई तहसीलों के आदिवासी इलाक़ों की यह कहानी हमने देखी है. यहाँ औरतों के दिन का बड़ा हिस्सा परिवार के लिए पानी जुटाने में ही निकल जाता है. बेशक यह बेहद थका देने वाला काम तो है ही.

इसके अलावा अगर इन हालातों की कड़ियों को जोड़ेंगे तो इस आदिवासी इलाक़े के सामाजिक और आर्थिक मसले भी समझ में आने लगेंगे. मसलन थोड़ा सा बारीकियों में जाएँ तो आप पाएँगे की यहाँ की पानी की समस्या सिर्फ़ खेती किसानी या फिर कृषि उत्पादन या मज़दूरी की तलाश में बाहर जाने की मजबूरी तक सीमित नहीं है.

बल्कि औरतों की साक्षरता दर की कमी की एक वजह भी पानी की कमी में आप तलाश सकते हैं. भारत के लगभग सभी समुदायों की तरह ही ज़्यादातर आदिवासी समुदायों में भी घर चलाने की ज़िम्मेदारी औरतों पर ही आती है. लिहाज़ा परिवार के लिए पानी हासिल करना भी उसकी ही ज़िम्मेदारी है.

अब पानी कहां से आएगा, उसके लिए औरतों को कितनी दूर चलना पड़ेगा, यह उसकी क़िस्मत पर है. पानी की तलाश और उसे हासिल करने में परिवार की लड़कियाँ बहुत कम उम्र में ही शामिल हो जाती हैं और अक्सर स्कूल और पानी में से परिवार पानी को ही चुनता है. 

गर्मियों में पहली प्राथमिकता पीने के पानी की है, साफ़ पीने के पानी की नहीं. लेकिन क्या आदिवासी पीने के साफ़ पानी की अहमियत नहीं समझते हैं. अगर ना समझते तो फिर जयंती भला छलनी से पानी को फ़िल्टर क्यों करतीं.

कम से कम इस इलाक़े में आदिवासियों को तो दोष नहीं दिया जाना चाहिए कि वो स्वच्छता और साफ़ पीने के पानी का महत्व नहीं समझते हैं. जयंती और उनकी बहू पानी भर कर अपने घर की तरफ़ लौट पड़ती हैं.

तमाम संघर्ष के बावजूद जयंती और उनकी गाँव की औरतों की क़िस्मत दो मामलों में अच्छी है – पहली की उन्हें दो-तीन किलोमीटर की रेंज में ही पानी मिल जाता है और दूसरी कि इसके लिए उन्हें किसी गहरे ख़तरनाक कुएँ में नहीं उतरना पड़ता है. 

फ़िलहाल जयंती के परिवार के लिए दोपहर के पानी का इंतज़ाम हो गया था. शाम को फिर से उन्हें पानी भरना होगा. जयंती के परिवार को दिन में तीन बार पानी भरना होता है. इस काम में उनका कम से कम 6 घंटे का समय लग जाता है.

जब इस तरह की कहानियाँ सामने आती हैं तो कई बेतुके तर्क भी देखने को मिलते हैं. मसलन आदिवासी इलाक़ों में औरतें मेहनत करती हैं इसलिए कभी बीमार नहीं पड़ती. हालाँकि आँकड़े तो इस तर्क को भी सच साबित नहीं होने देते. इस पानी के लिए औरतें और आदिवासी समुदाय कितनी बड़ी क़ीमत चुका रहा है, यह समझने की ज़रूरत है.

उनकी आर्थिक तरक़्क़ी, शिक्षा और स्वास्थ्य और एक बेहतर ज़िंदगी का हक़ सब कुछ इससे प्रभावित होता है…और इस तथ्य से हम नज़रें चुराते रहते हैं. 

एक घिसा-पिटा मुहावरा है जो मुझे इस गाँव के हालात पर याद आ रहा है चिरगा तले अंधेरा. जी हाँ मुझे इस समय इस गाँव के हालात को समझने या समझाने के लिए कुछ और याद नहीं आ रहा है.

क्योंकि पासोड़ी पाड़ा और आस-पास के कई गाँवों  के पास पानी का बड़ा भंडार है. इतना पानी है कि आसानी से यहाँ पर साल भर फसल भी पैदा की जा सकती है और घर घर पानी भी दिया जा सकता है.

पालघर ज़िले में तीन बांध हैं और तीनों ही बांध आदिवासियों की ज़मीन पर बने हैं. पासोड़ीपाड़ा के पास क़रीब ही कुर्जे बांध बना है. इस बांध दापचरी बांध के नाम से भी जाना जाता है. इस बांध के जलाश्य में जो पानी है क़ायदे से आदिवासियों का ही पानी है.

लेकिन आदिवासियों के खेतों या फिर पीने के लिए पानी उपलब्ध नहीं है. इन बाँधो से पानी मुंबई या उसके उपनगरों को पहुँचाया जाता है. इसके लिए बड़ी बड़ी पाईपलाइन बिछाई गई हैं. महानगरों की प्यास बुझाने के लिए अभी इस इलाक़े में ऐसी कई परियोजनाओं पर काम चल रहा है.

लेकिन आदिवासियों के लिए एक हैंडपंप लगाना या फिर उसको चालू हालात में रखने में भी प्रशासन कोताही करता है. 

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